हिमाचल में कांग्रेस ने मुफ्त की योजनाओं पूरा करने बढ़ाया अपने ऊपर कर्जा का बोझ

0
24

नई दिल्ली

पहाड़ों से घिरे हिमाचल प्रदेश पर कर्ज का पहाड़ बढ़ता जा रहा है. आर्थिक सेहत इतनी बिगड़ती जा रही है कि अगले दो महीने तक मुख्यमंत्री, मंत्री, मुख्य संसदीय सचिव और बोर्ड निगमों के चेयरमैन सैलरी और भत्ते नहीं लेंगे. मुख्यमंत्री सुखविंदर सिंह सुक्खू ने गुरुवार को बताया कि प्रदेश की आर्थिक स्थिति ठीक नहीं है, इसलिए वो और उनके मंत्री दो महीने के लिए सैलरी और भत्ता छोड़ रहे हैं.

हिमाचल में करीब ढाई साल पहले आई कांग्रेस सरकार लगातार कर्ज में डूब रही है. हिमाचल के आर्थिक संकट की वजह सरकार की तरफ से बांटी जा रही फ्रीबीज को जिम्मेदार माना जा रहा है. ढाई साल पहले हुए विधानसभा चुनाव के वक्त कांग्रेस ने मुफ्त की कई योजनाओं का वादा किया था. सरकार बनने पर इन वादों को पूरा किया, जिसने कर्जा और बढ़ा दिया.

रिजर्व बैंक की रिपोर्ट के मुताबिक, हिमाचल में कांग्रेस के सत्ता में आने से पहले मार्च 2022 तक 69 हजार करोड़ रुपये से कम का कर्ज था. लेकिन उसके सत्ता में आने के बाद मार्च 2024 तक 86,600 करोड़ रुपये से ज्यादा का कर्ज हो गया. मार्च 2025 तक हिमाचल सरकार पर कर्ज और बढ़कर लगभग 95 हजार करोड़ रुपये का हो जाएगा.

फ्रीबीज पड़ी महंगी!

2022 के चुनाव में सत्ता में वापसी के लिए कांग्रेस ने कई बड़े वादे किए थे. सरकार में आने के बाद इन वादों पर बेतहाशा खर्च किया जा रहा है. हिमाचल सरकार के बजट का 40 फीसदी तो सैलरी और पेंशन देने में ही चला जाता है. लगभग 20 फीसदी कर्ज और ब्याज चुकाने में खर्च हो जाता है.

सुक्खू सरकार महिलाओं को हर महीने 1500 रुपये देती है, जिस पर सालाना 800 करोड़ रुपये खर्च होता है. ओल्ड पेंशन स्कीम भी यहां लागू कर दी गई है, जिससे एक हजार करोड़ रुपये का खर्च बढ़ा है. जबकि, फ्री बिजली पर सालाना 18 हजार करोड़ रुपये खर्च होता है. इन तीन स्कीम पर ही सरकार लगभग 20 हजार करोड़ रुपये खर्च कर रही है.

हिमाचल सरकार को और झटका तब लगा जब केंद्र सरकार ने कर्ज लेने की सीमा को और कम कर दिया. पहले हिमाचल सरकार अपनी जीडीपी का 5 फीसदी तक कर्ज ले सकती थी. लेकिन अब 3.5 फीसदी तक ही कर्ज ले सकती है. यानी, पहले राज्य सरकार 14,500 करोड़ रुपये तक उधार ले सकती थी, लेकिन अब 9 हजार करोड़ रुपये ही ले सकती है.

आरबीआई की रिपोर्ट बताती है कि हिमाचल पर पांच साल में 30 हजार करोड़ रुपये का कर्ज बढ़ा है. अभी 86 हजार करोड़ रुपये से ज्यादा का कर्ज है. हिमाचल में हर व्यक्ति पर 1.17 लाख रुपये का कर्ज है.

दो महीने की सैलरी से कुछ होगा?

हिमाचल में मुख्यमंत्री, मंत्री और संसदीय सचिव अगर दो महीने की सैलरी-भत्ते नहीं लेते हैं, तो उससे कोई खास फर्क नहीं पड़ेगा. ये 'ऊंट के मुंह में जीरा' वाली बात होगी.

मुख्यमंत्री को हर महीने ढाई लाख रुपये सैलरी और भत्ते के रूप में मिलते हैं. दो महीने में हुए 5 लाख. हिमाचल सरकार में 10 मंत्री हैं और इन्हें भी हर महीने ढाई लाख रुपये मिलते हैं. दो महीने में इन मंत्रियों की सैलरी और भत्ते पर खर्च होते हैं 50 लाख रुपये. 6 संसदीय सचिव हैं, जिन्हें भी महीने के ढाई लाख रुपये मिलते हैं. 6 संसदीय सचिवों की दो महीने की सैलरी-भत्ते पर 30 लाख रुपये खर्च होते हैं.

यानी, मुख्यमंत्री, मंत्री और संसदीय सचिव अगर दो महीने तक सैलरी और भत्ते नहीं लेंगे तो कुल 85 लाख रुपये की बचत होगी. जबकि, हिमाचल सरकार पर मार्च 2025 तक लगभग 95 हजार करोड़ रुपये का कर्ज होगा.

सिर्फ हिमाचल ही नहीं, बाकियों की भी यही हालत

सिम्पल सा गणित है. कमाई कम और खर्च ज्यादा है तो कर्ज लेना पड़ेगा. लेकिन खर्च और कर्ज का प्रबंधन सही तरीके से नहीं किया गया तो हालात ऐसे हो सकते हैं कि न तो कमाई का कोई जरिया बचेगा और न ही कर्ज लेने के लायक बचेंगे.

राज्य सरकारों पर कर्जा लगातार बढ़ता जा रहा है. सरकारें सब्सिडी के नाम पर फ्रीबीज पर बेतहाशा खर्च कर रही हैं. आरबीआई की एक रिपोर्ट बताती है कि राज्य सरकारों का सब्सिडी पर खर्च लगातार बढ़ रहा है. राज्य सरकारों ने सब्सिडी पर कुल खर्च का 11.2% खर्च किया था, जबकि 2021-22 में 12.9% खर्च किया था.

जून 2022 में 'स्टेट फाइनेंसेसः अ रिस्क एनालिसिस' नाम से आई आरबीआई की इस रिपोर्ट में कहा गया था कि अब राज्य सरकारें सब्सिडी की बजाय मुफ्त ही दे रही हैं. सरकारें ऐसी जगह खर्च कर रही हैं, जहां से कोई कमाई नहीं हो रही है.

आरबीआई के मुताबिक, 2018-19 में सभी राज्य सरकारों ने सब्सिडी पर 1.87 लाख करोड़ रुपये खर्च किए थे. ये खर्च 2022-23 में बढ़कर 3 लाख करोड़ रुपये के पार चला गया था. इसी तरह से मार्च 2019 तक सभी राज्य सरकारों पर 47.86 लाख करोड़ रुपये का कर्ज था, जो मार्च 2024 तक बढ़कर 75 लाख करोड़ से ज्यादा हो गया. मार्च 2025 तक ये कर्ज और बढ़कर 83 लाख करोड़ रुपये से ज्यादा होने का अनुमान है.

अभी और हालात बिगड़ेंगे?

फ्रीबीज का कल्चर कैसे सरकार को घुटने पर ला सकता है, हिमाचल इसका बहुत बड़ा उदाहरण है. अभी तो मुख्यमंत्री, मंत्रियों और संसदीय सचिवों ने दो महीने की सैलरी-भत्ते छोड़े हैं. हो सकता है कि हालात और बिगड़ें.

पिछले साल आरबीआई ने चेतावनी दी थी कि गैर-जरूरी चीजों पर खर्च करने से राज्यों की आर्थिक स्थिति बिगड़ सकती है. इस रिपोर्ट में आरबीआई ने चेताया था कि अरुणाचल प्रदेश, बिहार, गोवा, हिमाचल, केरल, मणिपुर, मेघालय, मिजोरम, नागालैंड, पंजाब, राजस्थान और पश्चिम बंगाल पर आर्थिक खतरा मंडरा रहा है.

आरबीआई का कहना है कि कुछ राज्य ऐसे हैं, जिनका कर्ज 2026-27 तक GSDP का 30% से ज्यादा हो सकता है. इनमें पंजाब की हालत सबसे खराब होगी. उस समय तक पंजाब सरकार पर GSDP का 45% से ज्यादा कर्ज हो सकता है. वहीं, राजस्थान, केरल और पश्चिम बंगाल का कर्ज GSDP के 35% तक होने की संभावना है.

ज्यादा कर्ज होने से पैसा सही जगह पर खर्च नहीं हो पाता. सरकारें ऐसे डेवलपमेंट प्रोजेक्ट पर पैसा खर्च नहीं कर पाती, जिससे भविष्य में आमदनी हो सके. उदाहरण के लिए पंजाब अपने कुल खर्च का 22 फीसदी से ज्यादा ब्याज चुकाने में खर्च कर देता है. हिमाचल का भी 20 फीसदी खर्च ब्याज और कर्ज चुकाने में चला जाता है. इससे कैपिटल एक्सपेंडिचर में कमी आ जाती है.

क्या है फ्रीबीज?

चुनावी राज्यों में इस तरह 'मुफ्त बांटने' की योजनाएं आम बात है. विरोध करने वाले इन्हें 'फ्रीबीज' और 'रेवड़ी कल्चर' कहते हैं तो समर्थन वाले इन्हें 'कल्याणकारी योजनाएं' बताते हैं. विरोध करने वालों का अक्सर कहना होता है कि इससे सरकारी खजाने पर बोझ पड़ेगा, कर्जा बढ़ेगा और सिर्फ राजनीतिक फायदे के लिए ऐसा किया जा रहा है. तो ऐसी योजनाएं लाने वाले कहते हैं कि इसका मकसद गरीब जनता को महंगाई से राहत दिलाना है. खास बात ये है कि एक पार्टी जिस तरह की योजना को एक राज्य में रेवड़ी कल्चर कहती है, वही दूसरे राज्य में उसे कल्याणकारी योजना कहकर लागू कर रही होती है.

फ्रीबीज क्या है? इसकी कोई साफ-साफ परिभाषा नहीं है. लेकिन सुप्रीम कोर्ट में सुनवाई के दौरान चुनाव आयोग ने हलफनामे में बताया था कि अगर प्राकृतिक आपदा या महामारी के समय दवाएं, खाना या पैसा मुफ्त में बांटा जाए तो ये फ्रीबीज नहीं है. लेकिन आम दिनों में ऐसा होता है तो उसे फ्रीबीज माना जा सकता है.

वहीं, रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया (आरबीआई) ने कहा था, ऐसी योजनाएं जिनसे क्रेडिट कल्चर कमजोर हो, सब्सिडी की वजह से कीमतें बिगड़ें, प्राइवेट इन्वेस्टमेंट में गिरावट आए और लेबर फोर्स भागीदारी कम हो तो वो फ्रीबीज होती हैं.

अब ऐसे में सवाल उठता है क्या फ्रीबीज और सरकार की कल्याणकारी योजनाएं एक ही हैं या अलग-अलग? आमतौर पर फ्रीबीज का ऐलान चुनाव से पहले किया जाता है, जबकि कल्याणकारी योजनाएं या वेलफेयर स्कीम्स किसी भी समय लागू कर दी जाती हैं.

राजनीतिक पार्टियां चुनाव जीतने के लिए वादों की बौछार तो कर देती हैं, लेकिन इसका बोझ सरकारी खजाने पर पड़ता है. सुप्रीम कोर्ट ने भी कहा था कि टैक्सपेयर के पैसे का इस्तेमाल कर बांटी जा रहीं फ्रीबीज सरकार को 'दिवालियेपन' की ओर धकेल सकती हैं.

समाधान क्या है?

राज्यों के घटते राजस्व में इजाफे के लिए एन.के. सिंह की अगुआई वाले 15वें वित्त आयोग ने संपत्ति कर में धीरे-धीरे बढ़ोतरी, पानी जैसी विभिन्न सरकारी सेवाओं का शुल्क नियमित तौर पर बढ़ाने के साथ शराब पर उत्पाद कर बढ़ाने और स्थानीय निकायों तथा खाता-बही में सुधार करने की सलाह दी है.

आरबीआई के पूर्व गवर्नर डी. सुब्बाराव ने मीडिया में एक लेख में लिखा था, 'चाहे निजी कंपनी हो या सरकार, आदर्श तो यही है कि किसी कर्ज का भुगतान भविष्य में राजस्व पैदा करके खुद करना चाहिए. दूसरी तरफ, अगर कर्ज की रकम मौजूदा खपत में खर्च की जाती है और भविष्य की वृद्धि पर कोई असर नहीं होता, तो हम कर्ज भुगतान का बोझ अपने बच्चों पर डाल रहे हैं. इससे बड़ा पाप और कुछ हो नहीं सकता.'

जून 2022 में आरबीआई ने अपनी रिपोर्ट में श्रीलंका के आर्थिक संकट का उदाहरण देते हुए सुझाव दिया है कि राज्य सरकारों को अपने कर्ज में स्थिरता लाने की जरूरत है, क्योंकि कई राज्यों के हालात अच्छे संकेत नहीं हैं.

आरबीआई का सुझाव है कि सरकारों को गैर-जरूरी जगहों पर पैसा खर्च करने से बचना चाहिए और अपने कर्ज में स्थिरता लानी चाहिए. इसके अलावा बिजली कंपनियों को घाटे से उबारने की जरूरत है. इसमें सुझाव दिया गया है कि सरकारों को पूंजीगत निवेश करना चाहिए, ताकि आने वाले समय में इससे कमाई हो सके.

 

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here