DFO की अनूठी पहल, छत्तीसगढ़ में पहली बार बड़े स्तर पे हो रहा महुआ संरक्षण

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मनेन्द्रगढ़-चिरमिरी-भरतपुर

महुआ पेड़ो की घटती संख्या चिंता का विषय है। सबसे बड़ी समस्या इनकी पुनरुत्पादन की है। जंगल में तो महुआ पर्याप्त है पर आदिवासियो के द्वारा अधिक्तर महुआ का संग्रहण गाँव के ख़ाली पड़े ज़मीन और खेत के मेड़ो पे लगे महुआ से होती है। अगर आप बस्तर और सरगुज़ा के किसी गाँव में जाये तो उनके खेतों के पार और ख़ाली ज़मीन में सिर्फ़ बड़े महुआ के पेड़ ही बचे दिखते है। छोटे और मध्यम आयु के पेड़ लगभग नगण्य होती हैं।

ग्रामीणों के द्वारा महुआ संग्रहण से पहले ज़मीन साफ़ करने हेतु आग लगाई जाती है उसी के कारण एक भी महुआ के पौधे ज़िंदा नहीं रहते। ग्रामीण महुआ के सभी बीज को भी संग्रहण कर लेते है।ये भी एक कारण है महुआ के ख़त्म होने का।आख़िर बड़े महुआ पेड़ कब तक जीवित रह पायेंगे। छत्तीसगढ़ के महुआ पेड़ बूढ़े हो रहे है।महुआ पेड़ की औसत आयु 60 वर्ष है ।अगर जंगल के बाहर इनके पुनरुत्पादन पर ध्यान नहीं दिया गया तो ये जल्द ही ख़त्म हो जाएँगे।

मनेंद्रगढ़ वनमण्डल में इस वर्ष वनमंडलधिकारी मनीष कश्यप के पहल से पहली बार गाँव के बाहर ख़ाली पड़े ज़मीन और खेतों में महुआ के पौधे लगाये जा रहे है जिसकी सुरक्षा ट्री गार्ड से हो रही है। अब तक 30,000 महुआ के पौधे लगाये जा चुके है। ग्रामीणों में पौधे के साथ ट्रीगार्ड मिलने से इस योजना में ज़बरदस्त उत्साह है। छत्तीसगढ़ में संभवतः पहली बार महुआ पे इतना विशेष ध्यान दिया जा रहा है। 10 वर्ष में ही महुआ परिपक्व हो जाता है। एक महुआ के पेड़ से आदिवासी परिवार औसतन 2 क्विंटल फ़ुल और 50 किलो बीज प्राप्त कर लेता है जिसकी क़ीमत लगभग 10 हज़ार है।

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